क्यों गणेश की पूजा से होती है शुभ कामों की शुरुआत?

अक्सर लोग किसी शुभ कार्य को शुरू करने से पहले संकल्प करते हैं और उस संकल्प को कार्य रूप देते समय कहते हैं कि हमने अमुक कार्य का श्रीगणेश किया. कुछ लोग कार्य का शुभारंभ करते समय सर्वप्रथम श्रीगणेशाय नम: लिखते हैं. यहां तक कि पत्रादि लिखते समय भी ‘ऊँ’ या श्रीगणेश का नाम अंकित करते हैं. श्रीगणेश को प्रथम पूजन का अधिकारी क्यों मानते हैं? लोगों का विश्वास है कि गणेश के नाम स्मरण मात्र से उनके कार्य निर्विघ्न संपन्न होते हैं- इसलिए विनायक के पूजन में ‘विनायको विघ्नराजा-द्वैमातुर गणाधिप’ स्त्रोत पाठ करने की परिपाटी चल पड़ी है. यहां तक कि उनके नाम से गणेश उपपुराण भी है. पुराण-पुरुष गणेश की महिमा का गुणगान सर्वत्र क्यों किया जाता है? यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है. इस संबंध में एक कहानी प्रचलित है. एक बार सभी देवों में यह प्रश्न उठा कि पृथ्वी पर सर्वप्रथम किस देव की पूजा होनी चाहिए. सभी देव अपने को महान बताने लगे. अंत में इस समस्या को सुलझाने के लिए देवर्षि नारद ने शिव को निणार्यक बनाने की सलाह दी. शिव ने सोच-विचारकर एक प्रतियोगिता आयोजित की- जो अपने वाहन पर सवार हो पृथ्वी की परिक्रमा करके प्रथम लौटेंगे, वे ही पृथ्वी पर प्रथम पूजा के अधिकारी होंगे. सभी देव अपने वाहनों पर सवार हो चल पड़े. गणेश जी ने अपने पिता शिव और माता पार्वती की सात बार परिक्रमा की और शांत भाव से उनके सामने हाथ जोड़कर खड़े रहे. कार्तिकेय अपने मयूर वाहन पर आरूढ़ हो पृथ्वी का चक्कर लगाकर लौटे और दर्प से बोले, ‘मैं इस स्पर्धा में विजयी हुआ, इसलिए पृथ्वी पर प्रथम पूजा पाने का अधिकारी मैं हूं.’ शिव अपने चरणें के पास भक्ति-भाव से खड़े विनायक की ओर प्रसन्न मुद्रा में देख बोले, ‘पुत्र गणेश तुम से भी पहले ब्रह्मांड की परिक्रमा कर चुका है, वही प्रथम पूजा का अधिकारी होगा.’ कार्तिकेय खिन्न होकर बोले, ‘पिताजी, यह कैसे संभव है? गणेश अपने मूषक वाहन पर बैठकर कई वर्षो में ब्रह्मांड की परिक्रमा कर सकते हैं. कहीं तो परिहास नहीं कर रहे हैं?’ ‘नहीं बेटे! गणेश अपने माता-पिता की परिक्रमा करके यह प्रमाणित कर चुका है कि माता-पिता ब्रह्मांड से बढ़कर कुछ और हैं. गणेश ने जगत् को इस बात का ज्ञान कराया है.’ इतने में बाकी सब देव आ पहुंचे और सबने एक स्वर में स्वीकार कर लिया कि गणेश जी ही पृथ्वी पर प्रथम पूजन के अधिकारी हैं. गणेश जी के सम्बंध में भी अनेक कथाएं पुराणों में वर्णित हैं. एक कथा के अनुसार शिव एक बार सृष्टि के सौंदर्य का अवलोकन करने हिमालयों में भूतगणों के साथ विहार करने चले गए. पार्वती जी स्नान करने के लिए तैयार हो गईं. सोचा कि कोई भीतर न आ जाए, इसलिए उन्होंने अपने शरीर के लेपन से एक प्रतिमा बनाई और उसमें प्राणप्रतिष्ठा करके द्वार के सामने पहरे पर बिठाया. उसे आदेश दिया कि किसी को भी अंदर आने से रोक दे. वह बालक द्वार पर पहरा देने लगा. गणेश पूजन से पाएं लक्ष्मी कृपा… इतने में शिव जी आ पहुंचे. वह अंदर जाने लगे. बालक ने उनको अंदर जाने से रोका. शिव जी ने क्रोध में आकर उस बालका का सिर काट डाला. स्नान से लौटकर पार्वती ने इस दृश्य को देखा. शिव जी को सारा वृत्तांत सुनाकर कहा, ‘आपने यह क्या कर डाला? यह तो हमारा पुत्र है.’ शिव जी दुखी हुए. भूतगणों को बुलाकर आदेश दिया कि कोई भी प्राणी उत्तर दिशा में सिर रखकर सोता हो, तो उसका सिर काटकर ले आओ. भूतगण उसका सिर काटकर ले आए. शिव जी ने उस बालक के धड़ पर हाथी का सिर चिपकाकर उसमें प्राण फूंक दिए. तवसे वह बालक ‘गजवदन’ नाम से लोकप्रिय हुआ.

दूसरी कथा… दूसरी कथा भी गणेश जी के जन्म के बारे में प्रचलित है. एक बार पार्वती के मन में यह इच्छा पैदा हुई कि उनके एक ऐसा पुत्र हो जो समस्त देवताओं में प्रथम पूजन पाए. इन्होंने अपनी इच्छा शिव जी को बताई. इस पर शिव जी ने उन्हें पुष्प क व्रत मनाने की सलाह दी. पार्वती ने पुष्पक व्रत का अनुष्ठान करने का संकल्प किया और उस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए समस्त देवी-देवताओं को निमंत्रण दिया. निश्चित तिथि पर यज्ञ का शुभारंभ हुआ. यज्ञमंडल सभी देवी-देवताओं के आलोक से जगमगा उठा. शिव जी आगत देवताओं के आदर-सत्कार में संलग्न थे, लेकिन विष्णु भगवान की अनुपस्थिति के कारण उनका मन विकल था. जानें कौन सा है गणेश जी का सबसे मंगलकारी रूप… थोड़ी देर बाद विष्णु भगवान अपने वाहन गरुड़ पर आरूढ़ हो आ पहुंचे. सबने उनकी जयकार करके सादर उनका स्वागत किया. उचित आसन पर उनको बिठाया गया. ब्रह्माजी के पुत्र सनतकुमार यज्ञ का पौरोहित्य कर रहे थे. वेद मंत्रों के साथ यज्ञ प्रारंभ हुआ. यथा समय यज्ञ निर्विघ्न समाप्त हुआ. विष्णु भगवान ने पार्वती को आशीर्वाद दिया, ‘पार्वती! आपकी मनोकामना पूर्ण होगी. आपके संकल्प के अनुरूप एक पुत्र का उदय होगा.’ भगवान विष्णु का आशीर्वाद पाकर पार्वती प्रसन्न हो गई. उसी समय सनतकुमार बोल उठे, ‘मैं इस यज्ञ का ऋत्विक हूं. यज्ञ सफलतापूर्वक संपन्न हो गया है, परंतु शास्त्र-विधि के अनुसार जब तक पुरोहित को उचित दक्षिणा देकर संतुष्ट नहीं किया जाता, तब तक यज्ञकर्ता को यज्ञ का फल प्राप्त नहीं होगा.’ ‘कहिए पुरोहित जी, आप कैसी दक्षिणा चाहते हैं?’ पार्वती जी ने पूछा. ‘भगवती, मैं आपके पतिदेव शिव जी को दक्षिणा स्वरूप चाहता हूं.’